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NCERT Solutions for Class 12 Hindi Core Vitan Bhag 2 ( वितान भाग 2) Chapter 2 - Jujh (जूझ)
NCERT Solutions for Class 12 Hindi Core Vitan Bhag 2 ( वितान भाग 2) Chapter 2 - Jujh (जूझ)

अभ्यास प्रश्न और उत्तर

प्रश्न 1

'जूझ' शीर्षक के औचित्य पर विचार करते हुए यह स्पष्ट करें कि क्या यह शीर्षक कथा नायक की किसी केंद्रीय चारित्रिक विशेषता को उजागर करता है?

उत्तर:

'जूझ' शीर्षक की सार्थकता और कथा नायक के चरित्र से संबंध:

'जूझ' शीर्षक का शाब्दिक अर्थ संघर्ष, मुकाबला और टकराव है, जो इस पूरे अध्याय की आत्मा को दर्शाता है। यह शीर्षक केवल नाम मात्र नहीं है बल्कि कहानी के प्रत्येक पन्ने पर संघर्ष की भावना व्याप्त है। कथा नायक आनंद का जीवन बहुआयामी संघर्षों से भरा हुआ है - शिक्षा प्राप्त करने के लिए संघर्ष, पारिवारिक विरोध के खिलाफ संघर्ष, और सामाजिक बाधाओं के विरुद्ध संघर्ष। कहानी की शुरुआत से लेकर अंत तक एक निरंतर संघर्ष की धारा बहती रहती है जो इस शीर्षक को पूर्णतः सार्थक बनाती है।

कथा नायक आनंद के जीवन में विभिन्न स्तरों पर संघर्ष दिखाई देता है। सबसे प्रमुख संघर्ष उसका अपने पिता के विरोध के खिलाफ है, जो उसे पाठशाला जाने से रोकना चाहता है। शिक्षा प्राप्त करने के लिए वह हर कीमत पर पढ़ाई जारी रखने का संकल्प लेता है, भले ही उसके लिए कितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़े। गरीबी और निम्न सामाजिक स्थिति के साथ उसका संघर्ष निरंतर चलता रहता है। इसके अतिरिक्त, कविता लेखन और व्यक्तित्व निर्माण में भी वह निरंतर संघर्षरत रहता है, जो उसकी आत्मविकास की यात्रा को दर्शाता है।

यह शीर्षक कथा नायक की केंद्रीय चारित्रिक विशेषता को स्पष्ट रूप से उजागर करता है। आनंद की मुख्य विशेषता उसकी संघर्षशील प्रवृत्ति है जो उसे हर बाधा का सामना करने की तत्परता प्रदान करती है। उसमें दृढ़ संकल्प की अद्भुत शक्ति है जो उसे अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होने देती। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी वह धैर्य बनाए रखता है और अपने आत्मविश्वास को कभी कम नहीं होने देता। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह अपने संघर्ष को सकारात्मक दिशा देता है और उसे रचनात्मकता में बदल देता है।

अतः 'जूझ' शीर्षक न केवल पूर्णतः सार्थक है बल्कि यह कथा नायक की सबसे महत्वपूर्ण चारित्रिक विशेषता - संघर्षशील प्रवृत्ति को बेहद प्रभावी तरीके से उजागर करता है। यह शीर्षक पाठकों को तुरंत यह संदेश देता है कि यह कहानी किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में है जो जीवन की हर चुनौती से जूझने को तैयार है और अपने सपनों को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।

प्रश्न 2

स्वयं कविता रच लेने का आत्मविश्वास लेखक के मन में कैसे पैदा हुआ?

उत्तर:

लेखक में कविता रचने का आत्मविश्वास जगाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका उसके मराठी अध्यापक की रही है। श्री सौंदलगेकर जी की प्रेरणादायक शिक्षण पद्धति ने लेखक के मन में कविता के प्रति गहरा लगाव पैदा किया था। उनका आनंदमय कविता पाठ, भावपूर्ण प्रस्तुति और छंद, लय तथा भाव के साथ कविता पढ़ाने का तरीका अत्यंत प्रभावशाली था। जब वे विभिन्न कवियों की कविताओं का तुलनात्मक अध्ययन कराते थे और स्वयं अपनी रचनाएं भी सुनाते थे, तो लेखक के मन में यह विश्वास जगा कि वह भी इसी तरह की कविताएं लिख सकता है।

इसके साथ ही अनुकूल परिस्थितियों ने भी लेखक की काव्य प्रतिभा को विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। खेतों में काम करते समय मिलने वाला एकांत का समय उसके लिए वरदान साबित हुआ। भैंसे चराते समय प्राकृतिक वातावरण के साथ निकटता ने उसकी संवेदनाओं को जगाया। उसे मानसिक स्वतंत्रता मिली जिससे वह अपने विचारों को मुक्त रूप से व्यक्त कर सकता था। सबसे बड़ी बात यह थी कि उसके पास कविता रचने के लिए पर्याप्त समय उपलब्ध था, जिसका वह भरपूर सदुपयोग करता था।

प्रेरणा की शुरुआत छोटे-छोटे प्रयासों से हुई। पहले उसने छोटी-छोटी तुकबंदी करना शुरू किया, फिर धीरे-धीरे प्रकृति पर, विशेषकर फसलों और जंगली फूलों पर कविता रचना शुरू की। वह नियमित रूप से अपनी रचनाओं को अध्यापक जी को दिखाता था और उनसे फीडबैक लेता था। इस तरह के निरंतर अभ्यास और मार्गदर्शन से उसमें कविता लिखने का आत्मविश्वास निरंतर बढ़ता गया। रोजाना कविता लिखने का अभ्यास उसके लिए एक नशे की तरह हो गया था।

इस प्रकार मराठी अध्यापक की प्रेरणादायक शिक्षण पद्धति, प्राकृतिक वातावरण की अनुकूलता, एकांत का सदुपयोग, और निरंतर अभ्यास के कारण लेखक में कविता रचने का दृढ़ आत्मविश्वास पैदा हुआ। यह आत्मविश्वास केवल कविता लिखने तक सीमित नहीं था बल्कि इसने उसके समग्र व्यक्तित्व को निखारने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रश्न 3

श्री सौंदलगेकर के अध्यापन की उन विशेषताओं को रेखांकित करें जिन्होंने कविताओं के प्रति लेखक के मन में रुचि जगाई?

उत्तर:

श्री सौंदलगेकर की शिक्षण पद्धति अत्यंत अनूठी और प्रभावशाली थी। उनकी पहली विशेषता यह थी कि वे पढ़ाते समय स्वयं में पूर्णतः रम जाते थे। उनकी तल्लीनता इतनी गहरी होती थी कि छात्र उनके साथ पूरी तरह जुड़ाव महसूस करते थे। उनका सुरीला गला और मधुर आवाज में कविता पाठ करने का तरीका अद्वितीय था। वे छंद की बढ़िया लय-ताल का गहरा ज्ञान रखते थे और इसका सदुपयोग करते हुए कविता के भाव को समझने और समझाने की असाधारण क्षमता रखते थे। उनकी रसिकता और काव्य के प्रति समर्पण भाव देखते ही बनता था।

उनकी प्रस्तुति की तकनीक बेहद प्रभावी थी। वे पहले कविता को गाकर सुनाते थे, जिससे छात्रों को कविता की मूल भावना समझ में आ जाती थी। फिर वे बैठे-बैठे अभिनय के साथ भाव स्पष्ट करते थे, जिससे कविता जीवंत हो उठती थी। वे समान भाव की अन्य कविताएं भी सुनाते थे जिससे छात्रों को तुलनात्मक अध्ययन का अवसर मिलता था। सबसे प्रेरणादायक बात यह थी कि वे अपनी रची कविताएं भी सुनाते थे, जिससे छात्रों को लगता था कि वे भी इसी तरह की कविताएं लिख सकते हैं।

श्री सौंदलगेकर का काव्य ज्ञान अत्यंत व्यापक था। उन्हें पुरानी-नई मराठी कविताओं का गहन ज्ञान था और वे अनेक अंग्रेजी कविताएं भी कंठस्थ जानते थे। स्वयं भी कविता लिखने वाले होने के कारण वे कविता की बारीकियों को बेहतर तरीके से समझा सकते थे। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे प्रसंग के अनुसार तुरंत उपयुक्त कविता सुना देते थे, जिससे छात्रों को व्यावहारिक ज्ञान मिलता था।

छात्रों पर उनके अध्यापन का गहरा प्रभाव पड़ता था। जब वे कविता सुनाते थे तो छात्र दम रोककर सुनते थे और पूर्ण एकाग्रता के साथ उनकी हर बात को समझने की कोशिश करते थे। उनके द्वारा पैदा किया गया संवेदनात्मक जुड़ाव इतना गहरा होता था कि भावनाओं का गहरा प्रभाव छात्रों पर पड़ता था। उनसे मिली रचनात्मक प्रेरणा ने न केवल लेखक बल्कि अन्य छात्रों में भी स्वयं लिखने की इच्छा जगाई। वे छंद, लय, अलंकार की तकनीकी समझ भी देते थे जो किसी भी अच्छे कवि बनने के लिए आवश्यक है।

इन सभी विशेषताओं के कारण श्री सौंदलगेकर ने लेखक के मन में कविता के प्रति न केवल गहरी रुचि जगाई बल्कि उसे स्वयं कविता रचने की दिशा में प्रेरित भी किया। उनकी शिक्षण पद्धति का प्रभाव इतना गहरा था कि लेखक जीवनभर उनका आभारी रहा और एक सफल कवि के रूप में स्थापित हुआ।

प्रश्न 4

कविता के प्रति लगाव से पहले और उसके बाद अकेलेपन के प्रति लेखक की धारणा में क्या बदलाव आया?

उत्तर:

कविता के प्रति लगाव से पहले अकेलेपन की स्थिति लेखक के लिए अत्यंत कष्टकारी थी। वह अकेलापन उसके लिए एक भारी बोझ की तरह था जो उसे काटने को दौड़ता था। जब वह अकेला होता था तो उसके मन पर निराशा और हताशा की गहरी छाया पड़ जाती थी। जीवन के प्रति एक विरक्ति की भावना उसे घेरे रहती थी और वह जीवन के प्रति निर्मोही भाव महसूस करता था। अकेले समय में उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती यह होती थी कि वह अपना समय कैसे काटे। वह समय उसके लिए बोझ की तरह था जो बीतता ही नहीं था।

लेकिन कविता के प्रति लगाव के बाद अकेलेपन के प्रति उसकी धारणा में मूलभूत परिवर्तन आ गया। अब अकेलापन उसके लिए वरदान और आनंद का विषय बन गया था। वह अकेलेपन को अच्छा लगने लगा क्योंकि यह उसके लिए कविता रचने का आदर्श समय हो गया था। एकांत में उसे मानसिक शांति मिलती थी और वह बिना किसी बाधा के स्वतंत्रता की अनुभूति करता था। अब वह सृजन के लिए उस एकांत का पूरा सदुपयोग करता था।

इस मानसिक परिवर्तन के कई महत्वपूर्ण आयाम थे। सबसे बड़ा बदलाव यह था कि उसके दृष्टिकोण में पूर्ण परिवर्तन आ गया - जो पहले समस्या था वह अब समाधान बन गया था। उसमें आत्मनिर्भरता की भावना विकसित हुई और वह स्वयं के साथ खुश रहने की क्षमता प्राप्त कर चुका था। अकेलेपन से अब उसे सकारात्मक शक्ति प्राप्त होती थी और कविता रचने से मिलने वाला आंतरिक आनंद उसे पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता था।

व्यावहारिक रूप से भी उसके व्यवहार में स्पष्ट बदलाव दिखाई दिया। अब वह जानबूझकर एकांत की तलाश करता था और अकेले रहने की इच्छा करता था। वह चाहता था कि कोई उसे टोके नहीं ताकि वह बेरोकटोक अपनी कविता की दुनिया में खो सके। हर अकेले पल को वह रचनात्मक बनाने की कोशिश करता था और अपने विचारों से आत्म-संवाद करना उसकी आदत हो गई थी।

इस प्रकार कविता के प्रति लगाव के कारण लेखक का अकेलापन समस्या से समाधान में बदल गया और वह एक अत्यंत सकारात्मक अनुभव बन गया। यह परिवर्तन न केवल उसकी मानसिक स्थिति को बेहतर बनाने में सहायक हुआ बल्कि उसके व्यक्तित्व विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अकेलेपन का यह सकारात्मक उपयोग उसकी रचनात्मकता को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध हुआ।

प्रश्न 5

आपके खयाल से पढ़ाई-लिखाई के संबंध में लेखक और दत्ताजी राव का रवैया सही था या लेखक के पिता का? तर्क सहित उत्तर दें।

उत्तर:

पढ़ाई-लिखाई के मामले में लेखक और दत्ताजी राव का रवैया निर्विवाद रूप से सही था। उनकी सोच भविष्यदर्शी थी क्योंकि वे शिक्षा के दीर्घकालिक लाभों को समझते थे। वे यथार्थवादी दृष्टिकोण रखते थे और इस बात को स्वीकार करते थे कि केवल खेती से गुजारा करना संभव नहीं है। उनका मानना था कि नौकरी से स्थिर आय की संभावना है और शिक्षा से समाज में सम्मान मिलता है। यह दृष्टिकोण व्यावहारिक और दूरदर्शी था।

लेखक की सोच भी बिल्कुल तर्कसंगत थी। उसका यह कहना कि "पढ़ जाऊंगा तो नौकरी लग जाएगी" एक व्यावहारिक सोच को दर्शाता है। वह समझता था कि "चार पैसे हाथ में रहेंगे" जिससे आर्थिक स्वावलंबन संभव होगा। उसका यह विश्वास कि "धंधा-कारोबार किया जा सकेगा" उद्यमिता की संभावना को दिखाता था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि वह शिक्षा को गरीबी से मुक्ति का मार्ग मानता था और जीवन स्तर सुधारने का साधन समझता था।

दत्ताजी राव का योगदान और भी सराहनीय था। उन्होंने अपने सामाजिक दायित्व को समझा और एक प्रतिभावान बच्चे को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया। उनका दृढ़ निर्णय कि वे पिता को धमकाकर भी लेखक को स्कूल भेजेंगे, उनकी दूरदर्शिता को दर्शाता है। वे खुद खर्चा उठाने की पेशकश करने को तैयार थे, जो उनकी व्यावहारिक समझ और शिक्षा की महत्ता को पहचानने का प्रमाण था।

इसके विपरीत, लेखक के पिता का रवैया पूर्णतः गलत और अदूरदर्शी था। उसकी पूर्वाग्रहपूर्ण सोच "बैरिस्टर नहीं होने वाला है तू" बेहद संकीर्ण थी। वह तत्काल लाभ की सोच रखता था और खेती से तुरंत मदद की अपेक्षा करता था। उसका दृष्टिकोण स्वार्थी था क्योंकि वह अपनी आरामतलबी के लिए बच्चे का शोषण करना चाहता था। उसकी प्रतिगामी विचारधारा शिक्षा के महत्व को समझने में असमर्थ थी।

निष्कर्ष के रूप में यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि लेखक और दत्ताजी राव का रवैया पूर्णतः सही था। शिक्षा ही व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास, आर्थिक स्वावलंबन और सामाजिक प्रतिष्ठा का मुख्य साधन है। पिता का दृष्टिकोण न केवल संकीर्ण और अदूरदर्शी था बल्कि यह बच्चे के भविष्य को बर्बाद कर सकता था और उसकी प्रतिभा को दबा देता। आज के संदर्भ में देखें तो लेखक की सफलता इस बात का प्रमाण है कि शिक्षा के मामले में उसका और दत्ताजी राव का निर्णय कितना सही था।

प्रश्न 6

दत्ताजी राव से पिता पर दबाव डलवाने के लिए लेखक और उसकी माँ को एक झूठ का सहारा लेना पड़ा। यदि झूठ का सहारा न लेना पड़ता तो आगे का घटनाक्रम क्या होता? अनुमान लगाएँ।

उत्तर:

यदि झूठ का सहारा नहीं लिया होता तो लेखक के जीवन पर इसका विनाशकारी प्रभाव पड़ता। सबसे पहले तो वह शिक्षा से हमेशा के लिए वंचित रह जाता और जीवनभर अनपढ़ रहने को मजबूर होता। उसका जीवन केवल एक श्रमिक का जीवन होता जिसमें वह जीवनभर खेतों में मजदूर का काम करने को मजबूर होता। वह कोल्हू के बैल की तरह दिन-रात केवल शारीरिक श्रम में लगा रहता और उसका कार्यक्षेत्र केवल भैंसे चराने और खेती तक सीमित रह जाता। उसके पास कोई अन्य विकल्प नहीं होता।

इसका सबसे दुखदायी परिणाम उसकी प्रतिभा के दमन के रूप में सामने आता। उसकी काव्य प्रतिभा का पूर्ण विनाश हो जाता और कविता लिखने की उसकी असाधारण क्षमता का विकास ही नहीं हो पाता। उसकी रचनात्मकता का हनन हो जाता और सृजनात्मक शक्तियों का सदुपयोग नहीं हो पाता। उसका बौद्धिक विकास अवरुद्ध हो जाता और मानसिक क्षमताओं का पूरा सदुपयोग नहीं हो पाता। सबसे बड़ी बात यह होती कि उसका व्यक्तित्व विकास रुक जाता और आत्मविश्वास तथा स्वाभिमान में गंभीर कमी आ जाती।

पारिवारिक स्थिति की दृष्टि से देखें तो पिता की मनमानी निरंतर चलती रहती और वह अपनी अय्याशी में डूबा रहता। परिवार की सारी आर्थिक जिम्मेदारी लेखक के कंधों पर आ जाती और वह इस बोझ तले दब जाता। सामाजिक स्थिति की दृष्टि से वह हमेशा निम्न सामाजिक स्तर पर ही रह जाता और कभी उन्नति नहीं कर पाता। माँ को अपने पुत्र के भविष्य को लेकर आजीवन चिंता सताती रहती।

उसके सभी सपनों का बुरी तरह टूटना निश्चित था। पढ़ने-लिखने की सारी इच्छाएं दम तोड़ देतीं और बेहतर जीवन की आशा पूरी तरह समाप्त हो जाती। उन्नति के सभी रास्ते बंद हो जाते और आत्मनिर्भर बनने का अवसर चूक जाता। समाज में प्रतिष्ठा पाने का मौका हमेशा के लिए खो जाता।

व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो एक होनहार लेखक का जन्म ही नहीं होता और उसकी व्यर्थ प्रतिभा का कोई सदुपयोग नहीं हो पाता। साहित्य जगत को 'जूझ' जैसी महान कृति नहीं मिलती और न ही अन्य गरीब बच्चों के लिए कोई आदर्श स्थापित होता। शिक्षा के महत्व का संदेश समाज तक नहीं पहुंच पाता।

इस प्रकार केवल एक छोटे से झूठ ने लेखक के पूरे जीवन की दिशा बदल दी। यह झूठ वास्तव में एक बड़े सच के लिए था - शिक्षा का अधिकार और प्रतिभा का सम्मान। इसके बिना न केवल लेखक का बल्कि पूरे समाज का अपूरणीय नुकसान होता। यह उदाहरण दिखाता है कि कभी-कभी नैतिक दुविधा में बड़े उद्देश्य के लिए छोटे समझौते करने पड़ते हैं।

प्रश्न 7

लेखक का पाठशाला में पहला अनुभव कैसा रहा?

उत्तर:

लेखक का पाठशाला में पहला दिन अत्यंत कष्टकारी और अपमानजनक रहा। प्रारंभिक स्थिति यह थी कि उसे फिर से पांचवीं कक्षा में बैठना पड़ा, जबकि उसके नाम के सामने पहले से ही 'पांचवीं ना पास' की टिप्पणी लिखी हुई थी। इससे उसे पुनः नाम लिखवाने की जरूरत नहीं पड़ी लेकिन इससे उसकी विफलता का दाग पहले से ही मौजूद था। यह स्थिति उसके लिए बेहद शर्मनाक और हतोत्साहित करने वाली थी।

सामाजिक स्थिति की दृष्टि से वह खुद को बिल्कुल अकेला महसूस कर रहा था। गली के दो लड़कों को छोड़कर कक्षा में कोई भी उसे नहीं जानता था। आसपास सभी अनजान बच्चे थे और वह सामाजिक अलगाव की स्थिति में था। उसमें किसी से बात करने की हिम्मत नहीं थी और वह पूरी तरह से असहज महसूस कर रहा था। यह अकेलापन उसके लिए और भी कष्टकारी था क्योंकि वह पहले से ही डरा हुआ और सहमा हुआ था।

मानसिक दशा की दृष्टि से उसमें गहरी हीनभावना थी। अपने को छोटे बच्चों के साथ बैठने का दुख उसे सता रहा था और वह छोटे बच्चों को मंद बुद्धि समझकर स्वयं को भी उसी श्रेणी में रख रहा था। उसे अपने पुराने साथियों की याद आ रही थी जो अब उससे आगे निकल गए थे। इससे उसे निराशा की गहरी भावना हो रही थी और वह स्वयं को पिछड़ा हुआ महसूस कर रहा था।

वस्त्र और सामग्री की स्थिति भी उसके लिए शर्म का कारण थी। उसने बालुगड़ी की लाल मिट्टी के रंग में मटमैली धोती पहनी हुई थी और सिर पर मटमैला गमछा था। उसके पास उचित स्कूल बैग नहीं था और उसकी वेशभूषा की हीनता उसे अन्य बच्चों से अलग दिखा रही थी। यह स्थिति उसकी आर्थिक कमजोरी को उजागर करती थी और उसे और भी शर्मिंदा बनाती थी।

अन्य बच्चों का व्यवहार उसके लिए और भी पीड़ादायक था। चव्हाण नामक एक लड़के ने शरारत करते हुए उसका गमछा छीनकर अपने सिर पर लपेट लिया और पूछा कि "नया लगता है या गलती से आ बैठा है?" फिर उसने गमछे से मास्टर की नकल करके उसका तमाशा बनाया। इस तरह के व्यवहार से लेखक हास्य का पात्र बन गया था।

समग्र रूप से देखें तो यह पहला दिन लेखक के लिए अत्यंत कष्टकारी था। वह सहमा हुआ, डरा हुआ और पूर्णतः अकेला महसूस कर रहा था। अपने पुराने साथियों की अनुपस्थिति में वह खुद को एक विफल और पिछड़े हुए व्यक्ति के रूप में देख रहा था। यह कटु अनुभव उसके मन में गहरे घाव छोड़ गया लेकिन साथ ही उसके संकल्प को और मजबूत बनाने में भी सहायक हुआ।

प्रश्न 8

किस घटना से पता चलता है कि लेखक की माँ उसके मन की पीड़ा समझ रही थी?

उत्तर:

लेखक की माँ की समझदारी और संवेदनशीलता का सबसे स्पष्ट प्रमाण उस घटना में मिलता है जब लेखक ने उससे दत्ताजी राव के घर चलने का प्रस्ताव रखा था। इस प्रस्ताव के जवाब में माँ की तत्काल स्वीकृति और बिना किसी झिझक के साथ देने की सहमति दिखाती है कि वह अपने बेटे की मानसिक स्थिति को पूरी तरह समझ रही थी। उसने तुरंत यह निर्णय लिया कि इस योजना को पति से छुपाकर रखना होगा और दत्ताजी राव से बात करने में वह पूरा सहयोग करेगी।

माँ की इस समझ के कई गहरे प्रमाण मिलते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उसने अपने पुत्र की पीड़ा को बिना कहे ही समझ लिया था। वह जानती थी कि पति के गुस्से का डर होने पर भी उसे अपने बेटे का साथ देना चाहिए। उसे अपने बेटे के भविष्य की गंभीर चिंता थी और वह समझती थी कि यदि अभी कोई कदम नहीं उठाया गया तो बेटे का जीवन बर्बाद हो जाएगा। यहां तक कि झूठ बोलने जैसे गुप्त योजना में भी वह अपने बेटे का साथ देने को तैयार हो गई।

माँ के व्यवहार से मिलने वाले संकेत बेहद स्पष्ट थे। उसे ज्यादा सोच-विचार की आवश्यकता नहीं पड़ी और उसने तुरंत निर्णय ले लिया। यह दिखाता था कि वह काफी समय से अपने बेटे की मानसिक दशा को देख रही थी। उसने पति के मुकाबले अपने बेटे के हित को प्राथमिकता दी, जो उस समय के सामाजिक परिवेश में एक साहसिक कदम था। परंपरागत सीमाओं को तोड़कर आगे बढ़ने का उसका निर्णय मातृत्व की शक्ति और संतान के लिए कुछ भी करने की उसकी तत्परता को दर्शाता था।

माँ ने लेखक की मानसिक स्थिति की बारीकी से पहचान की थी। वह देख रही थी कि उसका बेटा दिन-रात पढ़ाई की योजना बनाते रहता है और उसकी बेचैनी निरंतर बढ़ती जा रही है। उसके चेहरे की उदासी और आंखों में दिखने वाली निराशा को माँ ने महसूस किया था। यहां तक कि जब लेखक चुप्पी की भाषा में अपनी व्यथा व्यक्त करता था तो माँ उसे समझ जाती थी। माँ के सहयोग से मिली उम्मीद की किरण को देखकर यह स्पष्ट होता था कि वह अपने बेटे की आशाओं और सपनों को पूरी तरह समझती थी।

निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि माँ का तत्काल साथ देना और दत्ताजी राव के घर जाने के लिए तैयार हो जाना स्पष्ट रूप से दिखाता है कि वह अपने बेटे की मानसिक पीड़ा और शिक्षा की तीव्र इच्छा को पूरी तरह समझ रही थी। एक माँ का यह सहज स्नेह और समझदारी लेखक के जीवन की दिशा बदलने में निर्णायक साबित हुई। यह घटना मातृत्व की महानता और संतान के प्रति माँ की गहरी संवेदना का अद्वितीय उदाहरण है।

प्रश्न 9

'जूझ' उपन्यास में लेखक ने क्या संदेश दिया है? क्या लेखक अपने उद्देश्य में सफल रहा है?

उत्तर:

'जूझ' उपन्यास के मुख्य संदेश की व्यापकता और गहराई अत्यंत प्रभावशाली है। लेखक का सबसे महत्वपूर्ण संदेश यह है कि जीवन में निरंतर संघर्ष करते रहना चाहिए और कभी भी हार नहीं मानी चाहिए। उन्होंने दिखाया है कि समस्याओं से भागना नहीं बल्कि उनका मुकाबला करना चाहिए। आत्मविश्वास की शक्ति पर बल देते हुए लेखक ने स्पष्ट किया है कि स्वयं पर भरोसा रखना अत्यंत आवश्यक है। दृढ़ संकल्प के महत्व को उजागर करते हुए वे बताते हैं कि अपने लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता बनाए रखना ही सफलता की कुंजी है।

शिक्षा के संबंध में दिया गया संदेश विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। लेखक ने स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है कि हर बच्चे को पढ़ने का हक है और यह मौलिक अधिकार है। योग्यता को पहचानना और उसे बढ़ावा देना समाज का दायित्व है। उन्होंने दिखाया है कि गरीबी शिक्षा में रुकावट नहीं होनी चाहिए और आर्थिक कमी के बावजूद भी शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। भविष्य निर्माण के लिए शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण साधन है और इससे बेहतर कल का निर्माण संभव है।

सामाजिक संदेश के रूप में लेखक ने परस्पर सहयोग के महत्व को दिखाया है। दत्ताजी राव जैसे व्यक्तियों की समाज में आवश्यकता को रेखांकित करते हुए उन्होंने बताया है कि दूसरों की मदद करना हमारा सामाजिक दायित्व है। पुरानी और गलत परंपराओं पर प्रश्न उठाना जरूरी है और मानवीय मूल्यों को बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। प्रगतिशील सोच अपनाकर नई पीढ़ी के साथ कदम मिलाना समय की मांग है।

व्यक्तित्व विकास के संदेश में रचनात्मकता के विकास पर बल दिया गया है। कविता लेखन जैसी गतिविधियों से व्यक्तित्व निखार संभव है। अकेलेपन का सदुपयोग करके उसे सृजनात्मक बनाया जा सकता है। धैर्य और दृढ़ता के साथ मुश्किल वक्त में भी हार नहीं मानी चाहिए। स्वावलंबन का जज्बा रखकर अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयास करना चाहिए।

लेखक की सफलता का मूल्यांकन करें तो यह स्पष्ट होता है कि वे अपने उद्देश्य में पूर्णतः सफल रहे हैं। उन्होंने ग्रामीण जीवन की वास्तविकता का जीवंत और प्रभावी प्रस्तुतीकरण किया है। कहानी में संवेदनात्मक जुड़ाव इतना गहरा है कि यह पाठकों के दिल को छूती है। यह कृति हजारों बच्चों के लिए प्रेरणास्रोत बनी है और आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी पहले थी। यह एक कालजयी कृति है जो समय के साथ-साथ और भी महत्वपूर्ण होती जा रही है।

इस उपन्यास का व्यापक प्रभाव देखने को मिलता है। शिक्षा नीति पर इसका प्रभाव पड़ा है और गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए जागरूकता बढ़ी है। सामाजिक चेतना में वृद्धि हुई है और प्रतिभा को पहचानने की संवेदना विकसित हुई है। पारिवारिक मूल्यों में सुधार हुआ है और बच्चों के सपनों का सम्मान करने की भावना बढ़ी है। व्यक्तिगत प्रेरणा के स्तर पर यह कई लेखकों और कलाकारों के लिए मार्गदर्शन का काम कर रही है।

निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि लेखक अपने उद्देश्य में पूर्णतः सफल रहा है। 'जूझ' न केवल एक आत्मकथात्मक उपन्यास है बल्कि संघर्ष, शिक्षा, और मानवीय मूल्यों का एक शक्तिशाली दस्तावेज है। इसने लाखों पाठकों को प्रेरणा दी है और आज भी यह उतना ही प्रासंगिक है जितना पहले था। यह कृति भारतीय साहित्य की अमूल्य धरोहर है।

प्रश्न 10

लेखक कविता किस ढंग से लिखता था और कविता बंदी के प्रति उसकी लगन कैसी थी?

उत्तर:

लेखक की कविता लेखन की पद्धति अत्यंत अनूठी और प्रेरणादायक थी। उसकी सबसे विशेष बात यह थी कि वह अपने कार्यक्षेत्र में ही काम करते-करते कविता लिखता था। खेतों में काम करते समय उसे प्राकृतिक प्रेरणा मिलती थी और भैंस चराते समय फसलों और जंगली फूलों को देखकर वह तुकबंदी करता था। उसका मौखिक अभ्यास भी बेहद प्रभावी था - वह जोर-जोर से गुनगुनाता और गाता था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि वह अपनी रची कविताओं को तत्काल मास्टर जी को दिखाकर संशोधन करवाता था।

उसकी लेखन सामग्री और उपकरणों की स्थिति उसकी लगन को दर्शाती थी। वह हमेशा अपनी खीसे में कागज और पेंसिल रखता था ताकि जब भी कोई भाव आए तो तुरंत लिख सके। जब कागज उपलब्ध नहीं होता तो वह वैकल्पिक माध्यमों का सहारा लेता था - लकड़ी के टुकड़े से भैंस की पीठ पर लिखता था या पत्थर पर कंकड़ों से कविता लिखता था। यह दिखाता था कि वह किसी भी परिस्थिति में अपनी रचनात्मकता को रोकने नहीं देता था। जब कविता याद हो जाती तो वह उसे मिटा देता था ताकि स्मृति में वह संरक्षित रहे।

उसकी कविता के विषय बेहद व्यापक और जीवंत थे। वह प्राकृतिक सौंदर्य का चित्रण करता था, विशेषकर फसलों और फूलों का। ग्रामीण जीवन से जुड़े अनुभव, खेती-किसानी की बातें उसकी कविताओं में स्थान पाती थीं। अपनी व्यक्तिगत भावनाओं को भी वह कविता के माध्यम से व्यक्त करता था। आसपास की घटनाओं का सामाजिक चित्रण भी उसकी कविताओं का विषय होता था।

उसकी लगन की तीव्रता असाधारण थी। वह कविता के लिए अपना पूरा जीवन बिताने की इच्छा रखता था और यह उसके लिए केवल शौक नहीं बल्कि जीवन का मुख्य उद्देश्य था। निरंतर अभ्यास उसकी आदत हो गई थी - हर समय, हर जगह कविता रचने का प्रयास करता रहता था। सुधार की चाह इतनी तीव्र थी कि वह मास्टर जी से लगातार मार्गदर्शन लेता रहता था। तकनीकी सुधार के लिए छंद, लय, तुकबंदी सीखने की उसमें प्रबल इच्छा थी।

अभिव्यक्ति के उसके तरीके भी अनूठे थे। वह कविता को केवल लिखता ही नहीं था बल्कि गायन के साथ प्रस्तुत करता था। अभिनय युक्त पाठ करते हुए वह नाचते-गाते हुए काव्य पाठ करता था। लयबद्ध प्रस्तुति उसकी विशेषता थी और वह ताल और छंद के साथ कविता सुनाता था। भावाभिव्यक्ति के लिए वह चेहरे के हाव-भाव का पूरा सदुपयोग करता था।

इस सब से उसे कई लाभ प्राप्त हुए। सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि उसे अकेलेपन से मुक्ति मिल गई क्योंकि कविता ने उसके ऊबाऊपन को दूर कर दिया था। कवि के रूप में उसकी नई पहचान बनी और वह स्वयं को इस रूप में स्थापित कर सका। छंद, अलंकार, लय का ज्ञान प्राप्त करके उसने अपना काव्य कौशल विकसित किया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई कि उसका आत्मविश्वास बढ़ा और अपनी प्रतिभा पर उसका भरोसा मजबूत हुआ।

समग्र मूल्यांकन करें तो लेखक की कविता के प्रति लगन वास्तव में असाधारण थी। वह कहीं भी, किसी भी परिस्थिति में कविता लिख सकता था और इसके लिए उसने कभी भी प्रतिकूल परिस्थितियों को बाधा नहीं बनने दिया। उसकी यह लगन न केवल उसे एक अच्छा कवि बनाने में सहायक हुई बल्कि उसके समग्र व्यक्तित्व को निखारने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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